अमेरिका से चिट्ठी
मुश्किल है बहुत मुश्किल...।
उमेश अग्निहोत्री
अमेरिका में 13 किस्म के स्पोर्ट्स ड्रिंक हैं, 85 किस्म के जूस हैं, 75 तरह की आइस्ड-टी है, 95 किस्म के कलेवे हैं । दर्द के लिये अस्सी किस्म की दवाएँ है । सुपर मार्किट में लगभग 30 हज़ार चीज़ें उपलब्ध होती हैं, हर साल इनमें 20 उत्पाद और आ जुड़ते हैं । 45 किस्म के स्टीरिओ सिस्टम, 50 किस्म के स्पीकर, उतनी ही तरह के डीवीडी प्लेअर, 85 किस्म के टेलीफोन, अनेकों तरह के मोबाइल फोन और बीस तरह के वीडिओ कैमरे हैं । वस्त्रों की विविधता का अंत नहीं है । कॉलेजों में पाठ्यक्रमों की बात करें तो हारवर्ड में कुल 220 पाठ्यक्रम हैं, साहित्य और कला के 58, ऑनर्स के 40 कोर्स हैं । प्रिंसटन में 350 पाठ्यक्रम हैं, स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय में भी उतने ही । पेनसिलवेनिया में एक छात्र को 40 ऑनर्स पाठ्यक्रमों में से अपनी पसंद का पाठ्यक्रम चुन सकता है। यही हाल टीवी पर केबल चैनलों का है । और यह सूची लम्बी से लम्बी की जा सकती है ।
यह ब्योरा इसलिये दिया कि मन में सवाल पैदा हुआ कि जिस देश में आदमी को अपनी पसंद की चीज़ चुनने के लिए इतने विकल्प सुलभ किये गये हों, वहाँ राष्ट्रपति चुनाव के मामले में केवल दो ही ........ ? एक रिपब्लिकन, दूसरा डैमोक्रेट । जो खुलापन अन्य क्षेत्रों में है, वह राजनीति में नज़्रर क्यों नहीं आता ? उसमें इतनी अनुदारता, इतनी कृपणता ?
अमेरिका में दो-पार्टी प्रणाली है । बताया जाता है इसके उभरने के ऐतिहासिक कारण हैं, जनसंख्या अधिकतर या तो रिपब्लिकन है तया डैमोक्रेट, शासकीय पदों पर या तो रिपब्लिकन हैं या डैमोक्रेट, हर विषय के दो नज़रिये होते हैं, संघ और राज्य सरकारों के कानून दो पार्टी प्रणाली को ही सुदृढ़ करते हैं । यह सब क्यों है इसका कोई संतोषजनक उत्तर आज तक नहीं मिला ।
हाँ, जहाँ तक अनेकों उत्पादों में में से एक या अधिक को छाँटने का मामला है या राष्ट्रपति पद के लिये दो में से को किसी एक को चुनने का, यह दोनों ही स्थितियाँ अमरिकियों को एक जैसी ही उलझन में डाल रही हैं । सुपरबाज़ारों के श्लफों पर उत्पादों की विविधता इतनी हो गयी है, कि कई खरीदार किंकर्तव्यविमूढ़-से घंटों चीजों के डिब्बों को उलट-पलट कर उन की इबारत का अध्ययन करते रहते हैं, और अंत में –बाज़ार से गुज़रा हूं खरीदार नहीं हूं – के अंदाज़ में खाली हाथ घर लौट जाते हैं । राजनीति में भी यह ही प्रवृति देखने में आ रही है । रिपब्लिकन और डैमोक्रेट उम्मीदवार इतनी मिलती-जुलती बातें करने लगते हैं, कि कई मतदाताओं को उनमें कोई अंतर ही नज़र नहीं आता । मतदान के लिये वे घरों से ही नहीं निकलते ।
मतदाताओं की दुविधा को कोका कोला और पैप्सी कोला के बीच देखने में आयी प्रतिस्पर्धा के संदर्भ में भी समझा जा सकता है । कहते हैं रिपब्लिकन कोका कोला प्रेमी हैं, और डैमोक्रेट पैप्सी कोला प्रेमी । कोका कोला और पैप्सी कोला के बीच ‘स्वाद के परीक्षणों’ में अक्सर पैप्सी बाज़ी मारता आ रहा था । पैप्सी कोला को जीतते देख कोका कोला ने कोशिश की कि उसके पेय का स्वाद भी पैप्सी जैसा बने । उसने यह किया, तिस पर भी बात नहीं बनी । तब किसी ने सुझाया कि कोका कोला को अपना पुराना फार्मूला नहीं छोड़ना चाहिये । कोका कोला ने वही किया और ‘क्लासिक कोला’ निकाला, और पैप्सी को हराया ।
Opt begin( कहते हैं कि राष्ट्रपति रॉनल्ड रेगन और बाद के नेताओं की जीत के पीछे यह भी एक कारण था कि उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी की विचारधारा का रूढ़िवादी फार्मूला अपनाया था । राष्ट्रपति क्लिंटन थे तो डैमोक्रेट लेकिन कई मामलों में राष्ट्रपति रेगन के प्रशंसक थे । (end opt) इस बार मिट रौमनी और बराक ओबामा के मुकाबले में कोक और पैप्सी की प्रतिस्पर्धा जैसी स्थिति ही देखने में आ रही है । दोनों के बीच हुए पहले डिबेट-मुकाबले में रौमनी अपनी तर्ज़ बदलने लगे, और अपने तर्कों में ओबामा के वक्तव्यों को इस हद तक पिरोने लगे कि ओबामा लगातार हैरान-परेशान नज़र आये । वह बार-बार कहते - गवर्नर रौमनी अब तक आप अपने चुनाव अभियान के दौरान कुछ और ही कहते रहे हैं ।
हाँ, रौमनी ने ‘क्लासिक कोला’ की तर्ज पर रिपब्लिकन पार्टी की रुढ़िवादी सोच के नये पैरोकार पॉल रायन को अपने साथ जोड़ा है ।
यह भी है कि सुपर बाज़ारों के शेल्फ चाहे जितनी भी तरह की वस्तुओं से अटे पड़े हों, कुछ चीजों को खरीदे बगैर उपभोक्ता का गुज़ारा नहीं है । ऐसे में बहुत से खरीदार बहुत माथापच्ची नहीं करते और उसी ब्रांड की चीज़ें खरीद लेते हैं, जो वे खरीदते रहे होते हैं, भले ही घर आकर पता चले कि उत्पाद के अवयव बदल चुके हैं । इसी तरह बहुत से मतदाता उसी पार्टी के उम्मीदवार को वोट देने का फैसला कर लेते हैं, जिसकी विचारधारा की परम्परा उन्हें लुभाती रही है । डिबेट मुकाबले हों न हों, उनमें चाहे कोई जीते, वे अपनी पार्टी के उम्मीदवार को ही वोट डालते हैं, भले ही चुनाव आज होना है या 6 नवम्बर को ।
राजधानी सहित अमेरिका के पैंतीस राज्यों में ( early voting ) निर्धारित दिन से पहले मतदान की पद्धति अपनाई जा चुकी है । 17 अक्तूबर से मतदान शुरू हो चुका है । राष्ट्रपति ओबामा और उनकी पत्नी वोट डाल चुके हैं । जॉर्ज टाउन विश्वविद्यालयके प्रोफैसर मैक्डॉलल्ड के अनुसार 35 प्रतिशत मतदान 6 नवम्बर से पहले ही हो चुका होगा । और कई राजनीतिक टीकाकार तो यह तक कह रहे हैं कि इस बार का चुनाव परिणाम चुनाव से पहले ही तय हो जायेगा ।
सचमुच असमंजस में हैं वे लोग, जिन्हें एक उम्मीदवार का कुल पैकेज तो आकर्षक/अनाकर्षक लगता है, लेकिन पैकेज के भीतर के कुछ आइटम घोर पसंद/नापसंद होते हैं । सब ठीक-ठाक लगे, तो पैकेज की पेशकश और मार्कइटिंग उनके दिलों को नहीं ठुकती । फिर यह भी है कि जो जितेगा उसे चार साल तक बरदाश्त भी करना होगा । मुश्किल है बहुत मुश्किल ।
ओह दिलचस्प ...लेख बेहद समझदारी और चिंतन के बाद लिखा गया है ...इसमें कोई दो राय नहीं की ,अमेरिका जैसे विशाल राज्य में जहाँ अनगिन उत्पाद और उनके विकल्प मौजूद हें वहां राजनीति में एसा क्यों नहीं ,कोई आप्शन क्यों नहीं .....पिछले दिनों एक हिंदी भाषी बड़े अखबार में पद रही थी की अमेरिका में भी सारे चुनावी हथकंडे भारतीय चुनावी राजनीती की तरह अपनाये जाते हें ...लेकिन फिर भी दो ही लोगों के बीच चुनाव या कम उमीदवारों की संख्या ये दर्शाती है की ..वहां सत्ता हथियाने और येन केन कुर्सी कब्जियाने का जो लालच भारत में है वहां नहीं हमारे एक परिचित जो इण्डिया से हें ...ने बताया था की अधिकांश लोग निरपेक्ष रहते हें जो जूनून भारत में है वैसा वहां इतना अधिक नहीं ...हमरे यहाँ जैसे छात्र राजनीति को भी शामिल किया जाता है ...अब तो पिछले डेढ़ साल से मेरी बिटिया भी डेनवर के पास यूनिवर्सिटी ऑफ़ व्योमिंग में है ..उससे भी बात चीत होती है तो पता चलता रहता है ...की चुनाव उनके लिए एक स्वभाविक प्रक्रिया है और भारत में इसे एक स्टंट के तौर पर ही हम देखने के अभ्यस्त हें और चुनाव जितने के लिए किसी भी हद तक हमारे नेता/उमीदवार जा सकते हें उनका उधेश्य जनता की भलाई की बजाय अपनी जेबें भरना होता है ..सब कुछ तो ठीक से नहीं कह सकती फिर भी अब जिस तरह का भर्ष्टाचार सामने आ रहा है शर्म /नफरत /ग्लानी और डूब मरने जैसी स्थिति है ...खैर सर ओबामा जी को जीतना चाहिए ..वे मेरे पसंदीदा हें बेटी से कहती हूँ कभी तुम्हारी यूनिवर्सिटी आयें तो मिलना जरूर उनकी जीत के लिए अग्रीम शुभकामना ..कविता जी आपको ढेरों धन्यवाद इस लेखको पढवाने के लिए साथ ही ...उमेश अग्निहोत्री जी का दिली शुक्रिया ...
जवाब देंहटाएं.. वाकई हमरे नेताओं के लिए ये एक सबक हो सकता है जैसा की आपने लिखा है कि ...मतदाताओं की दुविधा को कोका कोला और पैप्सी कोला के बीच देखने में आयी प्रतिस्पर्धा के संदर्भ में भी समझा जा सकता है । कहते हैं रिपब्लिकन कोका कोला प्रेमी हैं, और डैमोक्रेट पैप्सी कोला प्रेमी । कोका कोला और पैप्सी कोला के बीच ‘स्वाद के परीक्षणों’ में अक्सर पैप्सी बाज़ी मारता आ रहा था । पैप्सी कोला को जीतते देख कोका कोला ने कोशिश की कि उसके पेय का स्वाद भी पैप्सी जैसा बने । उसने यह किया, तिस पर भी बात नहीं बनी । तब किसी ने सुझाया कि कोका कोला को अपना पुराना फार्मूला नहीं छोड़ना चाहिये । कोका कोला ने वही किया और ‘क्लासिक कोला’ निकाला, और पैप्सी को हराया ....आमीन
ओह दिलचस्प ...लेख बेहद समझदारी और चिंतन के बाद लिखा गया है ...इसमें कोई दो राय नहीं की ,अमेरिका जैसे विशाल राज्य में जहाँ अनगिन उत्पाद और उनके विकल्प मौजूद हें वहां राजनीति में एसा क्यों नहीं ,कोई आप्शन क्यों नहीं .....पिछले दिनों एक हिंदी भाषी बड़े अखबार में पद रही थी की अमेरिका में भी सारे चुनावी हथकंडे भारतीय चुनावी राजनीती की तरह अपनाये जाते हें ...लेकिन फिर भी दो ही लोगों के बीच चुनाव या कम उमीदवारों की संख्या ये दर्शाती है की ..वहां सत्ता हथियाने और येन केन कुर्सी कब्जियाने का जो लालच भारत में है वहां नहीं हमारे एक परिचित जो इण्डिया से हें ...ने बताया था की अधिकांश लोग निरपेक्ष रहते हें जो जूनून भारत में है वैसा वहां इतना अधिक नहीं ...हमरे यहाँ जैसे छात्र राजनीति को भी शामिल किया जाता है ...अब तो पिछले डेढ़ साल से मेरी बिटिया भी डेनवर के पास यूनिवर्सिटी ऑफ़ व्योमिंग में है ..उससे भी बात चीत होती है तो पता चलता रहता है ...की चुनाव उनके लिए एक स्वभाविक प्रक्रिया है और भारत में इसे एक स्टंट के तौर पर ही हम देखने के अभ्यस्त हें और चुनाव जीतने के लिए किसी भी हद तक हमारे नेता/उमीदवार जा सकते हें उनका उधेश्य जनता की भलाई की बजाय अपनी जेबें भरना होता है ..सब कुछ तो ठीक से नहीं कह सकती फिर भी अब जिस तरह का भर्ष्टाचार सामने आ रहा है शर्म /नफरत /ग्लानी और डूब मरने जैसी स्थिति है ...खैर सर ओबामा जी को जीतना चाहिए ..वे मेरे पसंदीदा हें बेटी से कहती हूँ कभी तुम्हारी यूनिवर्सिटी आयें तो मिलना जरूर उनकी जीत के लिए अग्रीम शुभकामना ..कविता जी आपको ढेरों धन्यवाद इस लेख को पढवाने के लिए साथ ही ...उमेश अग्निहोत्री जी का दिली शुक्रिया ...
जवाब देंहटाएं.. वाकई हमरे नेताओं के लिए ये एक सबक हो सकता है जैसा की आपने लिखा है कि ...मतदाताओं की दुविधा को कोका कोला और पैप्सी कोला के बीच देखने में आयी प्रतिस्पर्धा के संदर्भ में भी समझा जा सकता है । कहते हैं रिपब्लिकन कोका कोला प्रेमी हैं, और डैमोक्रेट पैप्सी कोला प्रेमी । कोका कोला और पैप्सी कोला के बीच ‘स्वाद के परीक्षणों’ में अक्सर पैप्सी बाज़ी मारता आ रहा था । पैप्सी कोला को जीतते देख कोका कोला ने कोशिश की कि उसके पेय का स्वाद भी पैप्सी जैसा बने । उसने यह किया, तिस पर भी बात नहीं बनी । तब किसी ने सुझाया कि कोका कोला को अपना पुराना फार्मूला नहीं छोड़ना चाहिये । कोका कोला ने वही किया और ‘क्लासिक कोला’ निकाला, और पैप्सी को हराया ....आमीन
रोचक लेख। फ़िलहाल तो अमेरिका के लोग सैंडी तूफ़ान से जूझ रहे हैं। उससे निजात पाने की शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंबधाई ! अत्यंत सुरुचिपूर्ण और पठनीय आलेखों के साथ "विश्वम्भरा" हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका बन गई है| अन्तराष्ट्रीय जगत में हिंदी की उअपस्थिति को समृद्ध करने में यह महत्वपुर भूमिका निभाएगी ऐसा मेरा मानना है|सुदूर क्षेत्रों में रहते हुए भी भारत की सामासिक संस्कृति की खुशबु से युक्त तथा आधुनिकता की पुट लिए इसमें संकलित रचना हिंदी की श्रीवृद्धि करेगी| बाजारवाद का वैश्विक प्रभाव से समाज परिवार के साथ साथ भाषा भी प्रवाभित है | हिंदी के वैश्विक स्वरुप को समझने में विश्वम्भरा की भूमिका सराहनीय है| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंडा. कलानाथ मिश्र
'अभ्युदय' ई-११२,
श्रीकृष्णापुरी, पटना -८००००१
बिहार, भारत